दलित और मुसलमानों का गठजोड़ कोई नया नहीं है.

जब-जब सवर्णों ने दलितों के साथ भेदभाव किया है तब-तब मुसलमानों ने ही समर्थन दिया है, अनेकों परिस्थिति मे दलितों ने भी मुसलमानों को समर्थन दिया है.
ज्योतिबा फुले को जब सवर्णों ने दुत्कार दिया तब उस्मान शेख़ ने ज़मीन दान देकर विद्यालय खुलवाया.
सावित्रीबाई फुले के ऊपर माल-मूत्र फेंका जाता था तब ज्योतिबा फुले के साथ फ़ातिमा शेख़ खड़ी हुई और विद्यालय मे महिला शिक्षा का प्रचलन शुरू किया !.
बाबा साहब अंबेडकर को जब महाराष्ट्र से संविधान सभा मे चुनकर नहीं भेजा गया तब तत्कालीन बंगाल जोगेंद्रनाथ मंडल और बंगाल के प्रधानमंत्री फज़हूल हक़ ने 48% मुस्लिम मतदाता वाले जयसुर और कुलना क्षेत्र से चुनकर संविधान सभा मे भेजा.
उसी डॉ० अंबेडकर को 1952 के आमचुनाव मे मुंबई से एक साधारण व्यक्ति नारायण कजरोलकर से हारना पड़ता है.
कल्पना कीजिये, यदि, अंबेडकर जी बंगाल से संविधान सभा मे नहीं पहुंचे होते तब देश मे दलितों और मुसलमानों की स्थिति क्या होती?
पढ़ना शुरू करो, ईतिहास से बहुत कुछ निकलेगा !

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