सहानुभूति
एक गरीब औरत ने बामुश्किल आटा पीस—पीसकर सोने की चूड़ियां बनवाईं।
चाहती थी कि कोई पूछे—कितने में लीं?
कहां बनवाईं?
कहां खरीदीं?
मगर कोई पूछे ही न;
सुख को तो कोई पूछता ही नहीं!
घबरा गई, परेशान हो गई;
बहुत खनकाती फिरी गांव में,
मगर किसी ने पूछा ही नहीं।
जिसने भी चूड़ियां देखीं, नजर फेर ली।
आखिर उसने अपने झोपड़े में आग लगा दी। सारा गांव इकट्ठा हो गया।
और वह छाती पीट—पीटकर, हाथ जोर से ऊंचे उठा—उठाकर रोने लगी
"लुट गई, लुट गई! उस भीड़ में से किसी ने पूछा कि अरे, तू लुट गई यह तो ठीक, मगर सोने की चूड़ियां कब तूने बना लीं?
तो उसने कहा: अगर पहले ही पूछा होता तो लुटती ही क्यों!
यह आज झोपड़ा बच जाता, अगर पहले ही पूछा होता।
सहानुभूति की बड़ी आकांक्षा है
कोई पूछे, कोई दो मीठी बात करे।
इससे सिर्फ तुम्हारे भीतर की दीनता प्रगट होती है, और कुछ भी नहीं।
इससे सिर्फ तुम्हारे भीतर के घाव प्रगट होते हैं, और कुछ भी नहीं।
सिर्फ दीनऱ्हीन आदमी सहानुभूति चाहता है। सहानुभूति एक तरह की सांत्वना है,
एक तरह की मलहम—पट्टी है।
घाव इससे मिटता नहीं, सिर्फ छिप जाता है।
मैं तुम्हें घाव मिटाना सिखा रहा हूं।
ओशो: कहै वाजिद पुकार–(प्रवचन–10)
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