क्या-क्या मजा चल रहा है धर्म के नाम पर!
कैसे-कैसे खेल चल रहे हैं! और कितनी गंभीरता से चल रहे हैं।
मूर्तियाँ बना ली हैं। अपनी ही कल्पना के जाल हैं सब। कोई राम को पूज रहा है, कोई कृष्ण को पूज रहा है; कोई बुद्ध को, कोई महावीर को! पत्थर की मूर्तियाँ यूँ पूजी जा रही हैं, जैसे इनकी पूजा से तुम्हें सत्य मिल जाएगा।
क्योंकि कोई पूछता ही नहीं कि महावीर ने किसी की मूर्ति पूजी थी! यह पूछना शायद शिष्टाचार नहीं।
और बुद्ध ने किसकी मूर्ति पूजी थी? किसी की भी मूर्ति नहीं पूजी थी। बुद्ध का कसूर ही यही था। अगर वह किसी की मूर्ति पूजे होते, तो आज भारत में हिंदू उनको अपने सिर पर धारण करते। उनकी भी पालकी निकलती! लेकिन भारत से बुद्ध को हिंदुओं ने उखाड़ फेंका। कारण क्या था? -- क्योंकि बुद्ध ने न राम को पूजा, न कृष्ण को पूजा। बुद्ध ने किसी को पूजा ही नहीं।
बुद्ध ने परंपरा को कोई सहारा नहीं दिया। बुद्ध ने भीतर के सत्य को, नग्न सत्य को वैसा का वैसा रख दिया, जैसा था। लगे किसी को चोट, तो लगे। प्रीतिकर लगे तो ठीक, अप्रीतिकर लगे तो ठीक। सत्य को तो कहना ही होगा।
जय मूलनिवासी
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